आदिकाल से ही
मनुष्य जाति चिन्तन
शील, कर्मशील एवं
हर प्रकार की
बाधा पर विजय
पाने के लिये
सतत् प्रयत्नशील रही,
जिनके परिणामस्वरुप ही
बहुरंगी दुनियां तत्कालीन रचनाओं
के कुछ नये
स्वरों को सम्मिलित
करती हुई हर
रोज सुबह अपने
नैसर्गिक रहस्यमयी कलरव में
सतत अभिवृद्धियां करती
रही।
चलते-चलते कुछ
ताकतवर काफिलों ने अपने
अन्दरुनी खजानों को पहचान
लिया। तपस्या, साधना,
भक्ति और निरन्तर
गहन ध्यान करते
हुए कई जितेन्द्रिय
आत्म संयमी हुए
और अहम् का
परित्याग करते हुए
अहंमब्रह्मास्मि तक पहुंचे।
वे अपने-अपने
अनुयायियों को कभी
प्रत्यक्ष कभी परोक्ष
में स्व निर्मित
मोक्ष-मार्गों का
हर संभव सरलीकरण
करते हुए व्याख्यान
के मालाओं के
माध्यम से अनन्त
का अक्षय उपहार
के माध्यम से
हस्तान्तरित करते रहे।
सभी के अपने-अपने निजी
चिन्तन और अपनी
निजी भाषाए रहीं।
स्वाद प्रेमियों के अनुसार
षटरस भोजन से
निर्मित छप्पन भोग की
भांति हर व्यंजन
की अपनी एक
स्वाद युक्त अलग
सी पहचान बनती
रही। और इसी
तरह बढ़ती-बढ़ती
अनन्त की अभिव्यक्ति
की श्रृंखलाएॅ भी
अनन्त हो गई।
निरीक्षण-परीक्षण, और अवलोकनकर्ताओं
में जो कोटि-कोटि मिठाइयों
के स्तरों का
मूल्याकंन मात्र जिव्हा के
स्वादों के आधार
पर ही करने
लग गये है।
वे लोग साधना
के अन्तर्गत स्वार्थ
साधना की ओर
उन्मूख होकर बाह्य
सौन्दर्य के सारहीन
नीत नवीन श्रृगांर
में ही इतने
लीन हो गए
की गोलाकार व्यर्थ
सड़कों पर चलते-चलते पीढ़ियां
गुजर गई और
निकलते हुए उत्साही
नतीजे शून्य के
हमसफर बनकर उसी
शान शौकत से
शोर गुल के
साथ पुनः चल
पड़े।
उसके विपरीत द्वितीय श्रेणी
के वे साधक
जिनके मकसद मात्र
मिठाई की मिठास,
(शक्कर की उपस्थिति)
से थे। न
कि बनाने के
तरीकों से साधकों
के वे संगठन
रामबाण की तरहां
समानान्तर पथ पर
तीव्रगति से आगे
बढ़ते रहे। यह
प्रारब्ध का ही
निर्धारण है कि
जन्म के साथ
ही एक ही
परिवार और समाज
में जन्में किस
भाई को कौन
सा मार्ग मिलेगा
। कुछ साहित्यकार
सुन्दर और क्लिष्ठ
भाषा से सामान्य
अभिव्यक्तियों को अतिसुन्दर
बनाने का प्रयास
तो भरपूर करते
है किन्तु कृत्रिम
वर्षा की तरह
वे लाभ दायक
सिद्ध नहीं हो
पातें।
कुछ साहित्यकारां की मौलिक
एवं सुन्दर अभिव्यक्तियां
भाषा को कालजयी
सौन्दर्य प्रदान करती रहती
है। राजस्थानी मिट्टी
के कण-कण
में समाहित शक्ति
एवं भक्ति की
युगल खुशबुओं से
विश्व इतिहास के
अन्तर्गत हजारों प्रकार के
निष्पक्ष अनुसंधानकत्र्ताओं की हर
सुबह से शाम
तक और हर
शाम से सुबह
तक स्वागत की
थाली सजाकर एक
पांव पर खड़ी
अपलक प्रतीक्षाकुल है।
भक्ति की अभिव्यक्तियां
अधिकांशतः बहुत रहस्यमयी
रही है। भाषा
का सरल स्वरूप
छोटे-मोटे कार्यां
के लिये होता
है। किन्तु पहेलियों
को हल करने
का स्वभाव साधकों
के लिये गुरु
ज्ञान का सच्चा
अनुसरण करने वालों
के लिये कदम-कदम पर
यानि हर मौड़
पर प्रकाश-स्तम्भ
की भूमिकाएं निभाते
हैं। मैंने भी
फोरेस्टर पद की
राजकीय नौकरी छोड़ कर
योग साधना के
कंटकाकीण मार्ग को इस
दृढ़ संकल्प के
द्वारा आत्मसात किया कि
अध्यात्म के सफर
में सामान्य सी
हवाएं, आंधी, तूफान, चक्रवात,
मेघगर्जन, नदी-नाले,
हिंसक जानवर, ऊंचे
ऊंचे पहाड़ और
गहरी गहरी खांईयां
सच्चे समर्थक क्रूर
आलोचक एवं आस्थाहीन
संकट आदि कितने
ही कितनी ही
बार आएं और
आएंगे मगर मेरे
संकल्पों के अटल
दीपक को नहीं
बुझा सकेंगे। तीन
वर्णो से निर्मित
अटल शब्द ने
हीं इस बालक
दास को गुरु-कृपा एवं
अंजनी लाला का
ऐसा कृपा-पात्र
बना दिया कि
मैं अपनी तुतलाती
वाणी और दौड़ने
की आतुरता से
व्याकुल होने लगा।
इसी से प्रभावित
होकर मैंने अपना
उपनाम बालक दास
अटल रख लिया।
छोटे से बालक
की तरहां वक्त
ने अचानक करवट
ली राजकीय नौकरी
छोड़ कर योग
के संयोग से
तत्काल प्रभाव योग-मार्ग
पर चल पड़ा।
यूं तो अग्रज-अनुजों की श्रृंखलाएं
असीमित होती है।
किन्तु हनुमान जी की
कृपा से कुछ
ऐसे श्रावक मिले
जो मेरे मन
मयूर के स्वरों
को समझते-समझते
स्वर में स्वर
मिलाने लगे। सर्वाधिक
प्रमुख है-चित्तौड़
जिले की बड़ीसादड़ी
तहसील के पास
भाटोली, (ब्राह्मणों की) निवासी
श्री नन्द जी,
श्री किशन जी,
श्री सोहन जी,
श्री गौरी शंकर
जी, श्री ओंकार
जी, श्री रामेश्वर
सुथार, चित्तौडगढ़ निवासी कविराज
अमृत ष्वाणीष्, मेणार
निवासी लक्ष्मी लाल मेनारिया
(उस्ताद) एवं शंकर
जी जयपुर वाले
इत्यादि के लिये
यह आत्मीयता दिनों-दिन बढ़ती
रही।
कलम मुसीबतों का सर
कलम करती हुई
बिना नहाए धोए
बिना श्रृंगार किये
मेरे दैनिक सफर
के अजीबों गरीब
करिश्में, ताजुब और तजूर्बो
के रुहानी खयालों
को तरन्नुम के
मुताबिक स्वरों के अलग-अलग साचों
में कोटि-कोटि
भजनों को ढ़ालने
के लिये सदैव
मचलती रही। भाषा
के लुत्फकी नहीं
मकसद के हर
मुनासिब खुलासे को तवज्जू
देते हुए उसे
इस ताकत के
साथ रवानगियां दी
कि आंधी तूफानों
को नेस्तनाबूद करती
हुई मुसाफिरों की
सलामती के साथ
कश्तियां अपनी मंजिलों
पर पहुंच कर
ही आराम फरमाने
लगी।
मेरे भजन कितने
वजनदार साबित होंगे यह
केवल भविष्य की
तराजू ही जानती
है। मैंने यह
रचनाएं मेरी शान
शौकत में इजाफे
के वास्ते कभी
नहीं की। बेशक
इन भजनों के
खयालात यह तमाम
रुहानी खजानों के वो
बेताब मचलते हीरे
है जो खुद-ब-खुद गायकी
और तरन्नुम के
साचों में ढ़ल
कर ही जिन्हांेने
सुकुन की सास
ली। यह मात्र
भजन ही नहीं
यह मेरे मानस
के सच्चे आंशिक
अवतार है। जो
मुझे औलादों की
तरह बेहद अजीज
है।
कालान्तर में कभी-कभी कुछ
लोग बेशक यह
कहेंगे कि वाह
यार! वो भी
क्या चीज थी।
इन भजनों की
पंक्तियां साधना के मार्गो
में कभी-कभी
बैसाखी बन कर
इस तरह करीब
आ जाएगी कि
लड़खड़ाते पांवों को अचानक
गिरने से बचा
लेगी।
मैं अमावस्या की घोर
काली रात का
एक छोटा सा
जुगनू हूं जो
आप सभी साधको
के लिये सुनहरे
स्वर्णिम सूर्योदय के वास्ते
कोटि-कोटि शुभकामनाएं
देता हू ।
‘अटल’ कवि
बालक दास